Search This Blog

Tuesday 1 May 2012

क्या भारत में बहुसंख्यक समाज दंगाई एवं अल्पसंख्यक सदैव पीड़ित हैं ? - अलोक कुमार

यह जो नया कानून प्रस्तावित किया गया है, इसका इरादा बताने के लिए, इसका नुकसान बताने के लिए किसी भाषण की जरूरत नहीं है। केवल कानून में धारायें क्या हैं यह बता दी जाये तो वे स्वयं से स्पष्ट कर देती हैं कि इस कानून का इंन्टेन्ट क्या है और उसका नुकसान क्या होगा।

मैं क्योंकि पेशे से वकालत भी करता हँू इसलिए तीन धारायें ऐसी हैं जिनको मैं बिल में से पढ़कर के आपको बताना चाहूँगा। उसके बाद हम लोग उसके आगे चलेंगे।

इसमें एक नया शब्द है, वह शब्द है ’ग्रुप‘ (समूह)। ’गु्रप‘ की जो परिभाषा है वह सेक्शन 3 ई में कही गयी है। इसमें चार तरह के लोगों को शामिल किया गया है। प्रत्येक राज्य में जो धार्मिक अल्पसंख्यक हैं उनको; जो भाषाई अल्पसंख्यक हैं उनको उस राज्य के अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति को। अब यह स्पष्ट है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए पहले से भी बहुत सारे कानून हैं। वे सारे कानून देश की व्यापक सहमति से बने हैं। उनके लिए आरक्षण भी सर्वसम्मति से हुआ था। इनको अलग से विशेष कानून की जरूरत नहीं थी। इन्हें तो केवल इसलिए रखा गया है कि यह कहा जाये कि देखो केवल अल्पसंख्यक ही नहीं हम एम.सी./एस.टी. को भी शामिल कर रहे हैं। जो भाषाई अल्पसंख्यक हैं, कभी-कभी कोई राज ठाकरे विषय उठा लेते हांेगे, लेकिन भाषाई अल्पसंख्यकों के खिलाप कोई दंगा या लड़ाई हो रही है, ऐसी कोई बढ़ी घटना भी देश में नहीं हो रही। अब रह गये धार्मिक अल्पसंख्यक। धार्मिक अल्पसंख्यकों को देश भर में, जिस राज्य मे जो अल्पसंख्या में हैं, उसके आधार पर देखा जायेगा। जम्मू-कश्मीर में यह कानून लागू नही होगा यह इसमें लिखा है। इस देश में पारसियों व यहूदी  समाजों से तो कोई किसी प्र्रकार का विवाद होता नहीं, तो मुख्य तौर दो ही बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के बारे में यह बिल फोकस करता है।

दूसरी परिभाषा है ’विक्टिम‘ (पीड़ित) की। यह शुरू होता है, Þvictim Means any person belonging to a group…. माने ने पीड़ित से तात्पर्य है कि ’गु्रप‘ का कोई व्यक्ति। आप देखें। इस बात को कानूनी मान्यता हो गई कि हर मामले में, जहां कहीं भी दो पक्ष हैं एक बहुसंख्य है और दूसरा अल्पसंख्यक है, तो पीड़ित जो हैं, वह धार्मिक अल्पसंख्यकों में से ही हो सकता है। यह वह तर्क है जो दुनियाँ भर में हमारे विरोधी देते हैं।

तीसरी परिभाषा है जो मैं चाहूंगा कि थोड़ा विस्तार से देखें। परिभाषा यह हैः “communal and targeted violence” means and includes any act or series of acts, whether spontaeous or planned, resulting in injury or harm to the person and or property, knowingly directed against any person by virtue of his or her membership of any group. पहला हिस्सा है- ’एनी एक्ट या सीरीज एक्ट्स। यानि झगड़े की कोई एक घटना भी उसमें आएगी। ’स्पौनटेनियस‘- माने पहले से योजना न हो, मौके की गरमी पर झगड़ा हो जाए तो भी वह इस एक्ट में शामिल होगा। ऐसे सब झगड़े जिसमें अल्पसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति को या उसकी सम्पति को, कोई भी कितना सा भी नुकसान हो जाए तो एक्ट लागू होगा, अगर जानबूझकर यह झगड़ा इसलिए किया गया है कि अगला व्यक्ति अल्पसंख्यक है। अब आप कहेंगे देखो-देखो बचाव हो गया। आम झगड़ा इसमें शामिल नहीं हुआ। अगर तुम किसी से इसलिए लड़ते होे कि वह अल्पसंख्यक है, तभी यह कानून लागू होगा। मैं कहूंगा कि आपने अभी पूरा कानून नहीं पढ़ा। सेक्शन चार एक प्रिजम्पशन क्रिएट करता है। वह कहता है कि जिसमें झगड़ा हुआ है अगर उसके प्रतिपक्षी को मालूम है कि वह अल्पसंख्यक है तो यह मान लिया जायेगा कि उसने यह झगड़ा इसीलिए किया है।

अब कल्पना करिये एक दृश्य की। बहुसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति का अल्पसंख्यक समाज के किसी व्यक्ति से किसी लेन-देन के किसी सवाल पर झगड़ा हो जाए। दिल्ली में तो पार्किंग इतनी कम हो गयी है कि स्कूटर यहां पार्क क्यों किया, कार वहां पार्क क्यों की, इसके लिए झगड़ा हो जाता है। ऐसे किसी भी दो आदमियों के व्यक्त्गित झगड़े में, जब पुलिस आकर गिरफ्तार करेगी तो पूछेगी आपका नाम क्या है ? आप कहेंगे ’राम प्रसाद‘, तब पुलिस कहेगी ’अरे तुम राम प्रसाद हो‘ तो सुनो, यह अपराध कोग्निजेबल है। यह गैर-जमानती अपराध है। जिसमें 10 साल तक की कैद हो सकती है। तुम कोट में जमानत की याचिका दो, कोर्ट चाहेगी तो देगी नहीं चाहेगी तो नहीं देगी। दूसरे से पूछा जायेगा कि आपका नाम क्या है वह अल्पसंख्यक होगा तो कहना पड़ेगा “आहो आप तो अल्पसंख्यक समाज के हैं, आप पर 107-151 लगा रहे हैं, आपको हम पर्सनल बौंड पर ही छोड़ देेते हैं।” अब इस दृश्य की निष्पति को थोड़ा आगेे बढ़ाइये। जिस मौहल्ले में ये दोनों रहते हैं, वहां के समाजों को जब समाचार मिलेगा कि रामप्रसाद इसलिए जेल में रहेगा क्योंकि वह एक समाज का है और दूसरा व्यक्ति इसलिए जमानत पर बाहर आ गया क्योंकि वह दूसरे समाज का है तो क्या केवल इतनी ही बात दोनों समाजों के लिए परस्पर वैमनश्य का कारण नहीं बन जायेगी ? क्या यह मुद्दा र्व्यिक्तगत झगड़े से उठ करके दो समुदायों का झगड़ा नहीं हो जायेगा ? क्या दो लोगों का छोटी सी बात के लिए हुआ झगड़ा उस मौहल्ले में, उस शहर में, उस राज्य में साम्प्रदायिक वैमनश्य का आधार नहीं बन जायेगा ? इतना खतरनाक है यह बिल।

यह तो व्याख्या मैंने कर दी न आपको। वे क्या कहते हैं जिन्होंने यह बिल बनाया है। क्यों बनाया है यह बिल ? उनका तर्क सुनिये। वे कहते हैं, ’देयर इज ए इन्स्टीट्यूशनल बायस इन दी, सोसायटी, इन दी गवर्नमेंट, इन दी ब्यूरोक्रेसी, इन दी पुलिस फोर्सेज एण्ड दा आर्म फोर्सेज अंगेस्ट दी माइनोरिटीज नीड् स्पेशल प्रोटेक्शन एण्ड सेफ गार्डस फोर देयर लाइफ एण्ड प्रोपर्टीज‘। क्योंकि पूरे के पूरे समाज में, इसकी सरकार में, इसकी पुलिस में, इसकी फौज में और इसके सामाजिक संगठनों में एक संस्थागत विद्वेष है (इन्स्टीट्शनल बायस) मुसलमान और इसाई के खिलाप। इसलिए यह बिल सरकार को नियंत्रित करता है, संस्थाओं को नियंत्रित करता है, प्रशासन को नियंत्रित करता है कि इन सबके सामूहिक प्रहारों से इस देश के अल्पसंख्यकों की रक्षा की जाये।

यदि मुझे यह पता नहीें होता यह भाषण राष्ट्रीय सलाहाकार परिषद के लोंगों ने प्रस्तावना में लिखा हुआ है, मैं इस भाषण को अलग से पढ़ता, तो मैं सोचता कि मैं सम्भवतः संयुक्त राष्ट्र संघ के अन्दर पाकिस्तान के प्रतिनिधि का भाषण पढ़ रहा हूँ। यह कानून में लिखी अवधारणा है कि इस देश का बहसंख्य समाज, यह आक्रमणकारी है यह जो कानून में बताई गई अवधारणा है कि इस देश की अल्पसंख्यक पीड़ित हैं, क्या यह भारत के सत्य को घोषित करता है। क्या यह वर्तमान समाज और समय की सच्चाई को घोषित करता है ?

मैं कई बार सोचता हंू कि यह लायें क्यों भाई ? देश में अब से पहले जो दंगा हुआ था, वह 2002 में हुआ था। उसके बाद तो कोई देश में बड़ा दंगा नहीं हुआ। दिल्ली में जो बड़ा दंगा हुआ था, इसके पहले, वह तो 1984 में हुआ था। उसके बाद तो कोई बड़ा दंगा नहीं हुआ। नौ सालों से इस देश में कोई दंगा नहीं हुआ। सबने कहा कि बिहार का चुनाव, मध्य प्रदेश का चुनाव ये बिजली के, सड़क के, पानी के व विकास के मुद्दों पर हुआ है, धार्मिक आधार पर नहीं हुआ। जब सम्प्रदायों के लोग मिलकर रहना सीख रहे हैं, जब चुनावों के अंदर कोई एक समाज लामबंद हो कर के किसी राजनीतिक दल को हराने के लिए इकट्ठा नहीं हो रहा है; सौहार्द्र का वातावरण बना है; समन्वय का वातावरण आगे बढ़ रहा है, तब यह बिल क्यों लाए ? जो दंगे हुए भी उन्होंने पूरी राष्ट्रात्मा का झकझोरा था। उन्होंने पूरी सिविल सोसायटी को, फोर्स को, प्रशासन को सब को खड़ा किया था कि दंगा नहीं होना चाहिये। हुआ तो रुकना चाहिए। दोषियों को दण्ड मिलना चाहिए।

जब दंगे नहीं हो रहे, तब दंगों के बारे में कानून को लाने की जरूरत क्या थी ? मेरा इस बारे में कुछ आकलन है। मैं उसे थोड़ी देर बाद आपसे कहूंगा।

इस कानून के अंदर कौन-कौन आते हैं ? इसमें परिभाषा दी गयी है ’एसोसिएशन की‘, इट मीन्स एनी कॉम्बिनेशन ऑफ बॉडी ऑफ इन्डिविजुअल्स, यानि व्यक्ति का कोई भी संस्थागत समूह। रजिस्टर्ड हो-अनरजिस्टर्ड हो, किसी लेबल पर काम करते हों। पूज्य स्वामी जी विश्व हिन्दू परिषद में काम करते हैं, कोई आर्य समाज में काम करता हो सकता है, इसमें ’एसोसिएशन‘ पर भी शिकंजा कसा गया है। अगर कहीं चार लोग अल्पसंख्यकों से झगड़े में संलिप्त होते हैं, और यह पाया जात है कि चारों लोग फलाने संगठन के सदस्य हैं, आर्य समाज के सदस्य हैं, आरोप लगता है कि आर्यसमाज की विचारधारा या प्रभाव से झगड़े में लिप्त हो गए, तो उस संगठन के प्रमुखों को इस बात कि लिए गिरफ्तार कर लिया जायेगा और दण्डित किया जायेगा कि वे अपने सदस्यों का नियंत्रण करने में असफल हो गये। फिर से सुनिए, यह आरोप लगाने की जरूरत नहीं है कि तुमने उकसाया। यह आरोप लगाने की जरूरत नहीं है, कि तुम्हारे संगठनों ने योजना बनाकर दंगा करवाया। यह आरोप लगाने की जरूरत नहीं है कि ऊपर से नीचे तक इसके बारे में कोई सहमति या जानकारी थी। वह चारों उस संस्था के थे ना, तुम इसके पदाधिकारी हो। तुम रोक नहीं सके, तुम्हें जेल जाना होगा। दस साल के लिए जेल जाना होगा।

अफसरशाही तुम्हारे जिले में दंगा हुआ ना, तुम कलेक्टर हो ना, यह ’ब्रीच ऑफ कमांड रेस्पोंन्सिबिलिटी‘ हुई, तुम्हें दी गई व्यापक जिम्मेवारी का भंग हुआ। तुमको जेल जाना होगा। कितना ही अच्छे से काम किया हो, कितनी न्यायप्रियता से काम किया हो। कितना भी तुरंत काम किया हो। तुमको जेल जाना होगा।

एक नयी परिभाषा बनायी है, ’हेट प्रोपैगैण्डा‘ (घृणा का प्रचार) अगर आप अप्रिय लगने वाली बातों को कहते हैं, जिससे कि अल्पसंख्यकों को किसी विषय पर नाराजगी होे सकती है, तो हेट प्रोपैगैण्डा के दोषी पाए जायेंगे। मैं कार्यक्रम में गया था, वह आर्य-समाज मंदिर में कार्यक्रम था, स्वामी दयानंद का चित्र लगा था, पाखण्ड खण्डिनी पताका को धारण करके वह बढ़ रहे थे। मेरे मन में कल्पना आई कि शिव की नगरी बनारस में, शिववालय के सामने खड़े हो के निर्भय दयानंद कहते हैं यह जिसको तुम अंदर पूज रहे हो, यह पत्थर है, भगवान नहीं है। भगवान तो निराकार है। मुझे संतोष हुआ कि दयानंद बहुत साल पहले हो गये थे, आज हुए होते तो कहते ’हेट प्रोपैगैण्डा‘ किया है, स्वामी जी आप जरा 10 वर्ष के लिए ए॰ राजा के साथ के जेल रहिये।

वैसे हिन्दू-हिन्दू के बारे में कहेगा तो यह लागू नहीं होगा हिन्दू मुसलमान के बारे में कहेगा तो लागू होगा। मान लो कोई कहे कि भाई इस युग के अन्दर जब महिलायें आगे बढ़ कर पुरूषों के साथ काम कर रहीं हैं, यह बुर्का पहनने की जो प्रथा है, प्रतिगामी प्रथा है। मानलो आप उन्हें कहें, एक पुरूष चार पत्नियां रखे, यह प्रतिगामी प्रथा है। इसलिए इस्लाम में सुधार होना चाहिये। मानलो आप अगर कहें, कि शरियत का कानून की किसी ने चोरी की है, उसके हाथ काट डालो, यह कानून कालबाह्य हो गया है, तो डरी हुई ब्यूरोक्रेसी कहेगी, ओहो, इससे तो घृणा फैल सकती है, इसको गिरफ्तार कर लो।

कोई शिकायता कर दे आपके खिलाप कि आपने ऐसा कहा, शिकायतकर्ता की पहिचान को गुप्त रखा जायेगा। आपको नहीं पता लगेगा कि किसने शिकायत की है, आपको गिरफ्तार किया जायेगा। और सुनिये! इस बात को साबित करने की जिम्मेवारी सरकार पर नहीं होगी, शिकायतकर्ता पर नहीं होगी, कि आपने वाकई ’हेट पोपैगैंण्डा‘ किया। इस बात को साबित करने की जिम्मेवारी कानून आप पर डालता है कि आप सिद्ध करें कि आपने ’हेट पोपैगैंण्डा‘ नहीं किया। कैसा कानून है भाई यह ?

जब यह कानून पहले प्रस्तावित किया गया था, तब यह कहा गया था कि इस कानून के संचालन के लिए जो न्यायालय में जो पब्लिक प्रोसीक्यूटर हैं उनमें से एक-तिहाई ’ग्रुप‘ के होंगे। वोे तो हटा दिया गया। पर जो रखा गया वह क्या है ? पब्लिक प्रोसीक्यूटर वह ऑफिसर होता है जो न्याय के हित में निष्पक्ष रूप से काम करता है, सरकार का वकील। वह शिकायतकर्ता का वकील नहीं होता, वो मुल्जिम का वकील नहीं होता, वह न्याय का वकील होता है। इस बिल में यह प्रावधान किया गया है कि अगर शिकायताकर्ता को या इनफोर्मर को लगता कि पब्लिक प्रोसीक्यूटर उसके हित में काम नहीं कर रहा है, तो वो उसकी शिकायत कर सकता है। सरकार उस शिकायत की जाँच करके पब्लिक प्रोसीक्यूटर को बदलेगी। पब्लिक प्रोसीक्कूटर का रोल बदल दिया गया। उसको न्याय के लिए काम नहीं करना है, बल्कि शिकायताकर्ता के लिए काम करना है। उसके जिम्मे यह अगला दायित्व भी डाला गया हर तारीख के बाद मे वह शिकायताकर्ता को सूचित करेगा कि सर! आपके मुकद्दमे में यह कार्यवाही हुई है।

जिले के सुपरिटेंडेट ऑफ पुलिस के बिल में यह दायित्व डाला गया, अपराध की जांच से प्रत्येक चरण में वह शिकायताकर्ता को सूचित करेगा, कि सर आरोपी को जमानत की अर्जी लग गयी है कल। और सर! उसकी जमानत हो गयी है, उसकी विडियो रिकॉडिंग में आपको भेंट कर रहा हँू। आज यह पता लगा है, कल उससे पूछताछ करेंगे। कैसा कानून होगा और इस कानून की पूरी देेखभाल की जिम्मेदारी किसकी होगी ? इस कानून की देखभाल की जिम्मेदारी के लिए एक नेशनल अथॉरिटी (राष्ट्रीय प्राधिकरण) बनेगा। नेशनल अथॉरिटी में सात लोग चुने जायेंगे। इन सात में से अध्यक्ष और उपाध्यक्ष समेत चार सदस्य इस ’ग्रुप‘ के ही होंगे। तो अगर ये जाँच करेंगे ये इन्स्टीट्यूशनल बायस नहीं होगी ? माइनोरिटी की बहुमत वाली अथोरिटी जाँच करेगी मेजोरिटी के अपराधों की।

उससे भी आगे की बात यह है, इन सातों को चुनेगा कौन ? इनकी अहर्ता क्या होगी ? एलिजीबीलिटी क्या होगी ? क्या यह होगा कि कोई सर्वोच्च-न्यायालय का जज रहा हो तो वही हो सकता है ? यह नहीं, ऐसा कुछ नहीं। कोई भी व्यक्ति जिसका साम्प्रदायिक सौहार्द्र के लिये अच्छा रिकॉर्ड हो, वह हो सकता है। ।े अंहअम ंे चवेेपइसमण् चुनेगा कौन ? यू॰पी॰एस॰सी॰ या राष्ट्रपति ? आप चौंकिएगा मत। मैं गम्भीरता कह रहा हूँ, मूल प्रावधान कहता था कि इसको चुनेंगे मुलायम सिंह और मायावती। क्योंकि इनको चुनने वाले लोग हैं- प्रधानमंत्री, गृहमंत्री और संसद में सभी मान्यता प्राप्त राजनैतिक दलोें के नेता। बहुमत किसका रहेगा ? यदि वे आजम खान को भेज दें तो उन्हें कौन रोक लेगा, कौन विरोध करेगा ? और यह जो प्राधिकरण होगा, जिसको राजनैतिक दलों के नेता चुनकर भेजेेंगे जिनके इलिजीबिलिटी काराईटेरियन्स ह्नेग हैं। जब पूरे देश में विरोध हुआ तो इस प्रावधान को बदला गया पर अभी भी प्राधिकरण के सदस्यों से सरकार के बहुमत वाला पैनल ही चुनेगा।

इस बात के बावजूद कि कानून और व्यवस्था राज्यों का विषय है, इनके पास देशभर में झगड़े की किसी भी घटना के बारे जांच करने का अधिकार होगा। अभी तसल्ली नहीं हुयी। झगड़ा न हो तो भी जांच करने का अधिकार होगा। इन्हें लगे कि सम्भावना है कि झगड़ा होगा, तो भी जांच करेंगे। ये शब्द बिल से पढ़ रहा हूँ, मेरी व्याख्याऐं नहीं हैं। मैं बार-बार इस बात पर जोर दे कर कह रहा हूँ। कि मैं केवल वही दोहरा रहा हूँ जो इस बिल में प्रस्तावित है। झगड़े की जांच करेंगे। झगड़े की अन्देशेवाली स्थितियों की जांच करेंगे। झगड़े की सम्भावना हो उसकी जांच करेंगे। देश भर में करेंगे।

अमला कौन सा होगा जांच करने का ? बिल कहता कि डायरेक्टर जनरल ऑफ पुलिस के कैडर का एक अधिकारी अपनी फोर्ष के साथ इस अथोरिटी को जांच के लिए उपलब्ध कराया जायेगा। इनके आदेश मानेगा वो। ये पूरे देश में सभी राज्यों में कहीं से भी किसी भी अफसर को समन कर सकते हैं; किसी भी फाइल को समन कर सकते हैं; किसी भी व्यक्ति को गवाही देने के लिए बुला सकते हैं। पूरे देश में कोई भी फाइल, कोई भी ऑफिसर, कोई व्यक्ति हो, ये जाकर जांच कर सकते हैं। किसी भी कैंप में किसी भी थाने में, किसी भी जेल में जाकर कर सकते हैं। अब क्या बच गया ?

आपने कभी नहीं सुना होगा कि किसी भी कोर्ट की कार्यवाही की देखभाल करने के लिए पर्यवेक्षक (ओब्जर्वर) बिठा सकते हैं। कानून में लिखा है कि आप कोट में ओब्जर्वर बिठा सकते हैं। कोर्ट की कार्यवाही से संतुष्ट न हों तो कोर्ट में कह सकते हैं कि हम इसमें पार्टी बनाना चाहते हैं। एक ऐसी संस्था जो कोर्ट से भी ऊपर हो जायेगी राज्यों को ’एडवाइजरीज‘ भेज सकते हैं। इतने विषद् अधिकार।

 मैंने प्रश्न खड़ा किया था आपके सामने, कि जब दंगे नहीं हो रहे हैं, तब यह कानून क्यों ? मैंने कहा था, उत्तर बाद दूंगा। मेरी समझ में इसका उत्तर है कि दंगेे नहीं हो रहे हैं, इसलिए यह कानून है। कुछ राजनैतिक दलों को दंगों की जरूरत है। यूपीए के घटक दलों को दंगों की जरूरत है। कुछ समुदाय के अन्दर असुरक्षा और भय का वातावरण निर्माण किया जाये, इसकी जरूरत है। उत्तर प्रदेश के चुनावों में किसी समुदाय के समूह को वोट प्राप्त करने के लिए इस बिल की जरूरत है।

एक दूसरी भी जरूरत है। तमाम षड़यंत्रों के बावजूद गुजरात की सरकार के खिलाप उन्हें कुछ भी नहीं मिला। छः राज्यों में तो भाजपा की सरकारें हैं, तीन राज्यों में वो गठबंधन सरकार में हैं। कहीं पर ए॰डी॰एम॰के॰ राज कर रही है, कहीं पर कोई दूसरी पार्टी राज कर रही है। यूपीए सरकार जब से अपने दूसरे अवतार में आई है, वह राज्यों के अधिकारों पर अतिक्रमण करने के लिए निरंतर प्रयत्न कर रही है। जब नेशनल इन्वेस्टीगेशन एजेंसी बनायी थी, वह एक प्रयत्न था राज्यों के अधिकारों को कम करने का, बीज का बिधेयक हो पानी की समस्या हो, सब में हस्तक्षेप कर रही है। आखिर राज्यों को भी अपने अधिकार संविधान से मिलते हैं। उन संवैधानिक अधिकारों पर डाका क्यों डाला जाये ? यह जो नेशनल अथोरिटी बन रही है, यह कानून और व्यवस्था के मामले में राज्यों के अधिकारों पर डाका डालने का एक सीधा और बेईमान प्रयत्न है। घटना कैसी भी हो, ना भी हो, तो यह हस्तक्षेप कर सकेगी। यह नहीं चलेगा।

और इसमें तीसरी बात जो मुझे आपत्तिजनक लगती है, वह यह कि सर्वोच्च न्यायालय लगातार दो अधिकारों की सुरक्षा कर रहा है, सार्वजनिक जीवन में सूचना के अधिकार की सुरक्षा कर रहा है, जानकारी का अधिकार, पारदर्शिता का अधिकार, सरकार के कामकाजों में अन्दर तक झांकने का अधिकार। उसी आग्रह के साथ सुप्रीम कोर्ट रक्षा कर रहा है, व्यक्तिगत जीवन में गोपनीयता का अधिकार। यदि आप सार्वजनिक जीवन में नहीं हैं, तो किसी को भी अधिकार नहीं है। कि आपके बैड-रूम में झांके। हर मनुष्य का घर उसके लिए एक किला होता है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा उसके अन्दर झांकने की कानून को इजाजत नहीं। यह निजता का अधिकार है। पर इस कानून में हर राज्य में प्राधिकृत अधिकारी होगा, जिसको कोई भी मेल, ई-मेल, संदेश आदि यह पढ़ने देखने का अधिकार होगा।
जितनी प्रगति हुई है निजता की अधिकार की, वह खण्डित हो जायेगी। सब लोग सरकार से अपेक्षा करते थे कि ऐसा कुछ कर सकती है या सरकार ऐसा करने पर तुली हुयी थी, जिसकी आप कल्पना भी न करते हो। इसलिए वह केवल आपके संदेशों को पढ़ सके, इतना ही अधिकार उन्होंने नहीं लिया वरण् अगर उनको लगता है कि यह डाक उनको नहीं पहुंचानी चाहिए-तो वो इसको अपने पास ही रोक सकते हैं। वो तय कर सकते हैं ये चिट्ठियां रेसिपिऐंट को नहीं पहुंचाई जायेगी।

(सम्पादकीय टिप्पणी: भारी जनविरोध के बाद यह प्रावधान राष्ट्रीय सलाकार परिषद् ने अब वापस ले लिया है।)
कौन-कौन से अधिकारोें पर डाका डाला जा रहा है। अभिव्यक्ति का अधिकार, मुझे यह अधिकार है कि मैं अपने अधिकार का पालन करूं, मुझे संविधान यह अधिकार भी देता कि मैं अपने धर्म का प्रचार करूं। इसमें अपने धर्म का मंडन करने और अन्य धर्मों की आलोचना का अधिकार देता है। यह बिल प्रचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रोक लगाता है।

यह एसोसिएशन्स पर और नौकरशाहों पर दबाव डालता है कि ’बिल्डअप‘ को भी रोकना है इसलिए ऐसी सब चीजों पर अतिरिक्त सावधान रह कर, यदि तुम्हें गलती भी करनी तो बहुसंख्यकों के खिलाप करो, कार्यवाही करो।

मैं अभी एक इन्टरव्यू पढ़ रहा था, अभिषेक मनु सिंघवी का। कांग्रेस के प्रवक्ता हैं, इसलिए मैं यह मान लूंगा कि यह जो वक्तव्य है, यह कांग्रेस के समर्थन से है। उनसे पूछा गया कि यह कानून क्यों बना रहे हैं ? उन्होंने कहा कि भाई! अल्पसंख्यकों की रक्षा की जरूरत है उनमें विश्वास जगाने की जरूरत है। इसलिए हम रिलीजियस माइनारिटीस के लिए बना रहे हैं।

पर भई दंगे जो होते वे हमेशा बहुमत शुरू करे ऐसा नहीं होता। कभी-कभी अल्पसंख्यक भी शुरू करते होंगे। सन 2005-06 में एक डेनिश-अखवार में कुछ कार्टून छप गये। उनका भारत या भारत के बहुसंख्य समाज से कोई संबंध नहीं है। डेनिश अखवार के उस कार्टून के ऊपर देश में दंगे होते हैं। बहुसंख्य समाज के लोगों के घर और वाहन जला दिये जाते हैं। उसमें तो बहुसंख्य समाज की कोई गलती ही नहीं होती।

कुछ साल पहले दक्षिण में कोई एक कहानी लिखी गयी जिसका एक पात्र मोहम्मद था। मोहम्मद को तुमने पात्र कैसे बनाया, इस बात को लेकर वहां दंगे भड़क जाते हैं, लेखक तो मिलता नहीं है, उस शहर में रहने वाले बहुसंख्य समाज के लोगों घर-मकान जला दिये जाते हैं। केरल में हजरत मोहम्मद के बारे परीक्षा में एक प्रश्न आया तो प्रश्न पत्र बनाने वाले का एक हाथ काट दिया गया।

डा॰ सिंघवी से पूछा गया कि भाई! ये जो आपने इतने प्रावधान बनाये हैं, दंगा करने वालों पर बराबरी से लागू क्यों नहीं करते हो। अल्पसंख्यक समाज के लोगों पर भी लागू क्यों नहीं करते हो। उनका छपा हुआ जबाव है, अगर अल्पसंख्यक समुदाय हिंसा करता है तो “इस तरह के दंगों और स्थितियों से निपटने के लिए हमारी आई॰पी॰सी॰ में पर्याप्त कड़े प्रावधान हैं।”

आपको ध्यान होगा, जब यू॰पी॰ए॰ आई थी तब टाडा हटाया था। तर्क क्या था, हमारे कानून में आंतकियों से निबटने के लिए पर्याप्त प्रावधान है। हमको विशेष कानून नहीं चाहिए। अगर आंतकियों से निबटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं; जिहादियों से निबटने के लिए पर्याप्त प्रावधान है; नक्सलवादियों से निबटने के लिए पर्याप्त प्रावधान है; अल्पसंख्यक हिंसा करें तो निपटने के लिए वर्तमान कानून में सख्त प्रावधान हैं; तो क्या इस देश का बहुसंख्य समाज अपने ही देश में इतना खतरनाक है कि जो प्रावधान आपको टेरिरिस्टों के लिए, इन्सर्जेटस के लिए, नक्सलीज के लिए जिहादी के लिए नहीं चाहिए, वह देश के बहुसंख्य समाज के लिए चाहिए। क्या यह तर्क की चरम विकृत नहीं है ?

गोधरा के अंदर जिन्होंने कार-सेवकों को बंद कर करके जला दिया उन पर यह कानून लागू नहीं होगा। इसकी प्रतिक्रिया में जो गुजरात में दंगे हुये, उसमें केवल बहुसंख्य समाज के लोगों पर यह कानून लागू हुआ। क्या यह समता के अधिकार का उलंघन नहीं है ?

किसने बनाया यह कानून ? आजकल लोकपाल बिल पर झगड़ा चल रहा है। आरोप क्या लगाया जा रहा है। प्रणव दा ने भी कहा है, (मैंने यह नाम इसलिए लिया क्योंकि दिग्विजय सिंह का नाम होता तो कोई गंभीरता से नहीं लेता) उन्होंने कहा ’अन-इलेक्टेड एण्ड अनइलेक्टेबल‘ लोग हमको कानून बता रहे हैं। चुनाव लड़ा नहीं चुनाव जीत नहीं सकते, वो कानून बता रहे हैं। मेरे मन में आया कि मैं उनसे पूछूं कि प्रधानमंत्री जी भी कोई चुनाव नहीं जीते आज तक। मैं ऐसा नहीं चाहता कि इस विषय का राजनीतिकरण लोगों को लगे, हालांकि विषय राजनीति का है तो अनइलेक्टेड-अनइलेक्टेबल लोग सिविल सोसायटी के नाम पर पार्लियामेंट की शक्तियों को परे करके सत्यागृह के बल से हम पर कानून लाद रहे हैं, यह संविधान का और संसद का अपमान है। यह वह बुद्धिमत्तापूर्ण तर्क है जो अण्णा हजारे के खिलाप हम एक हफ्ते से सुन रहे हैं। इस छंजपदंस ।कअपेवतल ब्वनदबपस सोनिया जी को छोड़कर कोई भी चुना हुआ सदस्य नहीं है। चेयरमैन को छोड़ लगभग सब लोग वो हैं, जिन्होंने कुछ न कुछ एन॰जी॰ओ॰ बनाई हैं और दुनिया भर से पैसा इकट्ठा करते हैं। इसमें वो लोग हैं जिनके खिलाप शिकायत है कि इन्होंने गुजरात के संकट में गवाहों को पैसा देकर, चैक से पैसा देकर, खरीदकर शपथपत्र दिलवाये थे, झूठ शपथपत्र। अगर आपको एन॰जी॰ओ॰ की लिस्ट चाहिए, तो गुजरात के मामले पर वहां कौन-कौन सक्रिय रहे इसकी सूची देख लीजिये, दोनों लगभग एक ही सूची हैं। सरकार के खर्चे से, सरकार के प्रशासनिक आदेश से, झोला-छाप लोगों का एक समूह मिल करके विश्वसनीयत संदिग्ध हैं, ऐसे लोग फराह नक्वी, हर्ष मंदर, तीस्ता सितलवाड़, सैयद साहबुद्दीन जैसे।

कानून पर चर्चा तो एक बात है, पर इस तरह के कानून लोगों की कल्पना में क्यों आ जाते हैं ? कैसे उनको साहस हो जाता है कि उसको सार्वजनिक करें। कैसे यह हो जाता है कि वे इसकी वकालत करें। मैं सोच रहा स्वाधीनता हमें प्राप्त हुई यह सच है, हम अपने ही अधीन हैं, अंग्रेजों के नहीं। स्वराज आया यह सच है, हम राज कर रहे हैं विदेशी नहीं। पर स्वतंत्रता आई कि नहीं इस पर जरूर शक है। ये तंत्र हमारा है कि नहीं इस शक है।

भारतीय परम्परा, भारतीय संस्कृति, भारतीय सरकारों के आधार पर इस देश की राष्ट्रात्मा के तथा इस देश की चिति के अनुकूल यहां का विराट् खड़ा ह ुआ कि नहीं ? फिर यह हुआ कि विदेशों से जो व्यवस्था आई थी, जो प्रावधान 1935 के गर्वनमेंट आफ इन्डिया एक्ट द्वारा लागू किये गये थे, उन्हीं को छोटे-मोटे संशोधनों के द्वारा हमने संविधान मान लिया और संविधान में उसी ढंग का लोकतंत्र उसी ढंग की न्याय-व्यवस्था, उसी ढंग की शिक्षा व्यवस्था, सारा वह आयातित तंत्र जो हमारे ऊपर आरोपित होता है, इसको चलाने का हम प्रयत्न करते हैं। इससे हमारे अन्दर का ’स्व‘ और ’विराट‘ जागृृत नहीं होता। उस ’स्व‘ और ’विराट‘ के कुन्ठित हो जाने का परिणाम यह है कि इस तरह का कानून बनाने की प्रस्तावना होती है। इस तरह का कानून लागू होता है और एक बड़ी जमात खड़ी हो जाती है, जो कहती है कि हां! इस देश के हिन्दू, ये वास्तव में आक्रामक हैं। इस देश की पुलिस यह वास्तव में असभ्य है। इस देश की सेना यह जंगली है। इस देश की नौकरशाही, यह बार्बरिक है। इन सबसे इस देश के अल्पसंख्यकों की रक्षा करनी चाहिए। इस तरह की बातों कोे अगर ठीक करना होगा, तो केवल बिल के खिलाप संघर्ष करने से नहीं होगा, इस राष्ट्र की चिति जगे, इस राष्ट्र का विराट् जगे। ऐसे किसी महा-अभियान के द्वारा इन चीजों का मुकाबला करके, हम इस देश को इसके योग्य स्थान पर ले जा सकेंगे, मुझे लगता है कि 15 अगस्त के दिन इतना कहना पर्याप्त होगा। बहुत-बहुत धन्यवाद।

“आपको ध्यान होगा, जब यू॰पी॰ए॰ आई थी तब टाडा हटाया था। तर्क क्या था, हमारे कानून में आतंकियों से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान है। हमको विशेष कानून नहीं चाहिए। अगर आतंकियों से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं; अलगावादियों से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं; जिहादियों से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं; नक्सलवादियों से निपटने के लिए पर्याप्त प्रावधान हैं; अल्पसंख्यक हिंसा करे तो निपटने के लिए वर्तमान कानून में सख्त प्रावधान हैं; तो क्या इस देश का बहुसंख्य समाज अपने ही देश में इतना खतरनाक है कि जो प्रावधान आपको टेरिरिस्टों के लिए, इन्सर्जेन्टस के लिए, नक्सलीज के लिए, जिहादी के लिए नहीं चाहिए, वह इस देश के बहुसंख्य समाज के लिए चाहिए। क्या यह तर्क की चरम विकृत नहीं है ?”

No comments:

Post a Comment